Saturday, April 19, 2025

Ranveer Allahbadia Controversy: क्या डबल मीनिंग जोक्स ही असली हास्य बन गया है?

आज हम बात करेंगे हास्य के बदलते स्वरूप की । वह हास्य जो कभी समाज का आईना हुआ करता था, लेकिन आज डबल मीनिंग, फूहड़ता और अश्लीलता में उलझकर रह गया है ।

ENTERTAINMENT DESK:  आज हम बात करेंगे हास्य के बदलते स्वरूप की । वह हास्य जो कभी समाज का आईना हुआ करता था, लेकिन आज डबल मीनिंग, फूहड़ता और अश्लीलता में उलझकर रह गया है ।

क्या हंसाने के लिए अब सिर्फ अश्लील मजाक ही बचा है ?

एक दौर था जब हास्य सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं था, बल्कि यह समाज को एक नई दिशा देने वाला माध्यम भी था। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी जैसे व्यंग्यकारों की लेखनी, जसपाल भट्टी की व्यंग्यात्मक कॉमेडी, और राजू श्रीवास्तव की सहज हास्य कला, लोगों को सिर्फ हंसाती नहीं थी, बल्कि उन्हें सोचने पर मजबूर भी करती थी। लेकिन समय बदला, सिनेमा और कॉमेडी के मायने बदले, और इसके साथ ही हास्य की परिभाषा भी बदल गई।

90 के दशक में कॉमेडी का नया चेहरा

90 के दशक में गोविंदा, मिथुन चक्रवर्ती और कई अन्य सितारों की फिल्मों ने शॉर्टकट एंटरटेनमेंट का रास्ता अपनाया। अश्लील गानों और डबल मीनिंग डायलॉग्स से भरपूर फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाई।

“चोली के पीछे क्या है?”
“सारे लड़के कर रहे हैं छोरी…”
“खुद को क्या समझती है… बहुत तेज है…”

ऐसे गानों और संवादों ने मनोरंजन को हल्के स्तर पर पहुंचा दिया। सिनेमा और हास्य का एक नया रूप सामने आया, जिसमें हंसी का मतलब केवल मसालेदार संवादों और भद्दे मजाकों से हंसाना बन गया।

स्टैंड-अप कॉमेडी का दौर

इसके बाद स्टैंड-अप कॉमेडी का दौर आया। राजू श्रीवास्तव, सुनील पाल, एहसान कुरैशी जैसे कॉमेडियन्स ने मंच पर अपनी कला दिखाई। लेकिन यहां भी धीरे-धीरे हल्की अश्लीलता घुलने लगी।

2014 के बाद कपिल शर्मा ने इस फॉर्मेट को पूरी तरह से मेनस्ट्रीम बना दिया। उनके शो में दादी, बुआ, साली-जीजा जैसे रिश्तों पर भद्दे जोक्स को खूब तवज्जो मिली।

सोशल मीडिया और OTT ने बदला ट्रेंड

तकनीक बदली, और सोशल मीडिया, OTT और पॉडकास्ट के दौर में हास्य और भी ज्यादा बदल गया।

आज के कई नए कॉमेडियन्स डबल मीनिंग कंटेंट को “ट्रेंडी” और “कूल” मानते हैं। हर वाक्य में हल्की फुहड़ता डालकर वह खुद को मॉडर्न कॉमेडियन मानने लगे हैं।

तो असली सवाल यह है—क्या यही असली हास्य है?
क्या हमने हास्य का असली उद्देश्य खो दिया है?

क्या हमें जसपाल भट्टी, परसाई और शरद जोशी जैसे महान कलाकारों की वो कला नहीं याद करनी चाहिए, जो न सिर्फ हंसाती थी, बल्कि समाज की विसंगतियों को उजागर भी करती थी?

क्या हंसी का मतलब सिर्फ अश्लील मजाक और द्विअर्थी संवाद रह गया है?

सोचिएगा जरूर !

 

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